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स्वर्ग की पुनःप्राप्ति
एक मोटी निर्मल कोहरे की परत खड़े पहाड़ों के ढलानों से नीचे उतरती है और पके हुए सेब के बगीचों को अपने आगोश मे ले लेती है जो कटने का इंतजार कर रहे थे। मनमोहिनी धौलाधार पहाड़ियों में बसा हुआ काफेर का एक विचित्र,शांत,छोटा सा गांव जो एक औसत भारतीय पर्यटक की नजरों में नहीं आता अगर हाल ही में लंबी दूरी के उत्सुक यात्री तथा पर्वतारोही प्रकृति की वास्तविक खूबसूरती का मज़ा उठाने के उद्देश्य से एक या दो दिन के लिए वहाँ शिविर लगाना शुरु नहीं करते। वे वहाँ खाते,पीते,मौज करते,तथा प्लास्टिक के कूड़े का ढेड़ अपनी इच्छानुसार कहीं भी छोड़ते हुए पहाड़ों के पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहे थे। रोशन नाम का एक रोशन नाम का 10 साल का लड़का जब इन घटनाओं को देखता था तो उसे बहुत गुस्सा आता था क्योंकि उसकी आत्मा वहां के पर्यावरण, काफेर के देवदार के पेड़ों तथा हरे-भरे घास के मैदानों के साथ बंधी हुई थी।
काफेर गांव का एक दृश्य
रोशन ने, गांव के युवाओं के साथ मिलकर अपने मूल गांव में एक स्वच्छता अभियान आयोजित किया था तथा प्लास्टिक को इस्तेमाल करने से होने वाले खतरनाक प्रभावों के बारे में जानकारी का प्रचार करते हुए सिंगल-यूज प्लास्टिक के इस्तेमाल को नियंत्रित करने तथा प्रत्येक व्यक्ति को विकल्प के तौर पर कागज के थैले को इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु इस अभियान को गति प्रदान की थी। यहाँ तक कि उसने स्थानीय पंचायत से भी सीधा संपर्क स्थापित किया था तथा प्लास्टिक के खतरे से निपटने हेतु कूड़ेदान भी लगाए थे, मगर ज्यादा बदलाव नहीं हुआ था। पर्यटकों ने चिप्स एवं बिस्कुटों के खाली पैकेटों,पानी की बोतलों,शराब की बोतलों,तथा प्लास्टिक के कपों को इधर-उधर फेंकने की अपनी लापरवाही भरी आदतों को जारी रखा था। काफेर मे प्लास्टिक प्रदूषण के लिए केवल बाहरी लोग ही नहीं बल्कि स्थानीय लोग भी उतने ही जिम्मेदार थे। साप्ताहिक बाजार जिसमें पड़ोसी गांवों के लोगों का भी काफी आना-जाना रहता है व्यस्तत्म गतिविधियों का एक केन्द्र है जिसके परिणामस्वरूप सब्जी विक्रेताओं एवं खाने-पीने की रेहड़ी लगाने वाले लोगों द्वारा बड़ी मात्रा में प्लास्टिक कचरा फेंका जाता है जिसे प्रायः मवेशियों द्वारा खा लिया जाता है। ठोस कचरे का सही निस्तारण ना केवल इस निर्मल गांव में बड़ी संख्या में आने वाले पर्यटकों की वजह से बल्कि स्थानीय लोगों के लापरवाही भरे रवैये की वजह से भी एक बढ़ती हुई समस्या अब बन चुका था।
रोशन के गांव के रसायन अध्यापक उसे इस प्रकार प्रोत्साहित करते थे, ‘‘देखो रोशन, हम अपनी दैनिक जिंदगी से प्लास्टिक को तब तक नहीं खत्म कर सकते हैं जब तक हम इसका कोई जैवनिम्नीकरणीय विकल्प ना बना लें।‘‘ उसके अध्यापक के इन शब्दों ने रोशन के दिमाग में शोध के बीज बो दिए थे और अपने हितैषी प्रधानाध्यापक,अध्यापकों तथा माता-पिता के सहयोेग से, जो अपने बच्चे के सपनों को पूरा होते हुए देखना चाहते थे, उसने अपने सपनों को पंख देने हेतु हर चुनौती का बखूबी सामना किया था।
हिमालय में दूरदराज स्थित एक साधारण गांव से ताल्लकु रखने वाले लड़के के लिए शिमला से रसायन में स्नातक डिग्री लेना बहुत बड़ी बात थी जहाँ केवल कुछ ही लोग शिक्षा ग्रहण कर पाते थे। हालांकि, कुछ बदलने की दृढ़ इच्छा एवं धुन ने रोशन को स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त करने तथा उसके बाद दिल्ली स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), शिक्षा के प्रतिष्ठित मंदिर से सामग्री विज्ञान एवं इंजीनियरिंग में पीएचडी करने के लिए प्रेरित किया था। मगर उसके लिए शुरुआती दिनों में दिल्ली की महानगरीय एवं भागती-दौड़ती जीवनशैली से तालमेल बिठाना आसान नहीं था। वह एक तालाब से बाहर आई हुई मछली के समान था – जो कि इस बड़े शहर के तौर-तरीकों से अंजान था तथा आईआईटी में दाखिला मिलने पर अभिभूत था।
नवंबर की एक सुबह रोशन ने कुछ ऐसा देखा जो कि उसने पहले कभी नही देखा था। सुबह के 8 बजे थे और वह अपने बिस्तर से उठकर छात्रावास के कक्ष की खिड़की खोलकर देखता है कि उसे दूर-दूर तक कुछ दिखाई नही दे रहा था। धुंध की जहरीली चादर ने दृश्यता को शून्य कर दिया था। एक वमनकारी संवेदना ने उसकी आंखों एवं नथुनो को प्रभावित कर दिया था। यह असहनीय था। वह तुरंत खिड़कियाँ बंद कर लेता है। बाद मे उसे अपने दोस्तों से पता चलता है कि दिल्ली की वायु गुणवत्ता खतरनाक स्तर तक खराब हो चुकी है जिसके कारणवश राज्य सरकार को स्कूल बंद करने पड़े हैं तथा लोगों से अपील करनी पड़ रही है कि वे बाहर जाने से बचें। उसे यह भी पता चलता है कि पड़ोसी राज्यों के किसानों द्वारा जलाई जा रही पराली का धुआँ भी दिल्ली के उच्च प्रदूषण स्तरों के लिए जिम्मेवार है,तथा यह स्थिति वाहनों के धुओं,निर्माण गतिविधियों,तथा औद्योगिक उत्सर्जनों से और खराब हो जाती है। ये सब धूल के कणों,कार्बन डाईऑक्साइड,नाइट्रोजन डाईऑक्साइड तथा सल्फर डाईऑक्साइड के साथ मिलकर दिल्ली को एक खतरनाक गैस चैंबर बना देते हैं जिसके कारणवश हवा में सांस लेना दूभर हो जाता है और जिसकी वजह से प्रत्येक वर्ष नागरिकों की औसत उम्र घटती चली जा रही है। उसके गांव में अविचारणीय स्थिति यहाँ एक वार्षिक समस्या बन चुकी है जिससे दिल्ली के लोग अब आदी हो चुके हैं। रोशन उस दिन अधिकतर समय अपने बिस्तर पर ही लेटा रहा, मगर वह बच्चों और बूढ़ों के बारे में सोचकर अंदर ही अंदर दुःखी था जिन्हें इस स्वास्थ्य आपातकाल का दंश सबसे ज्यादा झेलना पड़ता है। उस रात रोशन को आविर्भाव हुआ था। क्यों ना यांत्रिकी कटाई के बाद किसानों द्वारा छोड़ी गई पराली का इस्तेमाल सिंगल-यूज प्लास्टिक की जगह उपयोग होने वाले एक जैवनिम्नीकरणीय एवं सस्ते विकल्प को बनाने में किया जाए? उसने अगले कुछ दिन पुस्तकालय मे रखी विभिन्न वैज्ञानिक पत्रिकाओं को पढ़कर,अपने पीएचडी गाईड से बात करके तथा इस प्रकार के उत्पाद की व्यवहार्यता पर शोध करने में बिताये। इस दौरान, उसने अपनी पीएचडी थिसिस भी जमा की थी तथा पोस्टडॉक्टोरल पद के लिए आवेदन करने शुरु कर दिए थे। अंततः,उसे भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी),बैंगलुरु के सामग्री इंजीनियरिंग विभाग में पोस्टडॉक्टोरेल पद प्राप्त हुआ जो कि उसकी बची हुई पराली से जैवनिम्नीकरणीय प्लास्टिक को ईजाद करने की खोज में एक क्रांतिकारी परिवर्तन साबित हुआ था।
शोध संस्थान से जुड़ने के पश्चात् उसने अपने विचारों को साझा किया तथा अपने परिचारक से दीर्घकालिक विकल्पों के बारे में विचार-विमर्श करना शुरु कर दिया था। तत्पश्चात्, उसने गैर-परिष्कृत तेल; अरंडी तेल तथा जमीन चावल के चारे की मदद से पालीयुरथेन फिल्म को संश्लेषित करते हुए जैवनिम्नीकरणीय प्लास्टिक को तैयार करने की कल्पना की थी। दिल्ली की दो समस्याओं अर्थात् अत्यधिक खराब वायु सूचकांक के साथ-साथ प्लास्टिक के मानव एवं पर्यावरण पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों हेतु यह एक सस्ता,पर्यावरण हितैषी एवं दीर्घकालिक विकल्प साबित होगा। मगर प्रत्येक प्रयास विफल साबित होता था। अपने अभियान पर अडिग रहते हुए, रोशन ने हार नही मानी थी। एक वर्ष के अथक प्रयास के पश्चात्, उसने सफलतापूर्वक पालीयुरथेन फिल्म तैयार कर ली थी। उसने अरंडी तेल, जमीन चावल का चारा,तथा हेक्सामिथाईलिन डाईसोसाईनेट नामक रसायन घोल को एक साथ मिलाया तथा कम तापमान पर सभी प्रणेताओं को गर्म किया था। अगले दिन वह प्रयोगशाला आता है और देखकर चौंक जाता है,कि पालीयुरथेन फिल्म बनकर तैयार हो गई थी। यह देखकर और सोचकर उसकी खुशी का ठिकाना नही रहा था कि अब वह सामान ले जाने वाले थैले,गिलास,पानी की बोतलें तथा चम्मचें जैसी घर में रोजाना इस्तेमाल होने वाली चीजें भी अपनी इस पॉलीयूरेथिन फिल्म से बना सकता है। वह इतने तक ही नही रूका था। उसने अपने परिचारक के समक्ष एक पेटेंट का आवेदन किया था जिसे अगले वर्ष स्वीकृति मिल गई थी। मीडिया रिपोर्ट्स,साक्षात्कारों,प्रतिष्ठित प्रकाशनों ने भी उसका साथ दिया था। छोटे एवं बड़े उद्यमियों ने उसकी इस नई खोज का व्यवसायीकरण करने हेतु उससे संपर्क साधा था जिसने बहुत अधिक ध्यान आकर्षित किया था। इस सारे शोर-शराबे एवं ख्याति के बीच, रोशन की आत्मा शांत,बर्फ से ढ़के पहाड़ों के बीच जाने के लिए लालायित थी जिसकी शांत हवा चीढ़ और देवदार के पेड़ों की पत्तियों से होते हुए उसका नाम बुदबुदाती थी। उसे एहसास हो गया था कि अपने उस सपने को पूरा करने हेतु उसे सही शुरुआत मिल गई है जिसके पीछे वह वर्षों से भाग रहा था। एक छोटे,शांत गांव में अपने घर वापिस लौटते ही एक गौरवान्वित पिता अपने बेटे की उपलब्धियों को सुनकर खुशी के आंसू नही रोक पाये जो कि अब गांव की शान बन चुका था। उन आंसुओं में काफेर को प्लास्टिक मुक्त देखने की एक उम्मीद की किरण भी थी जो कि अन्य लोगों को यह बताते हुए उनके लिए मार्ग प्रशस्त करेगी कि दैनिक जिंदगी में थोड़ी बहुत आदतों को बदलकर भी बहुत बड़ा बदलाव लाया जा सकता है अगर हम सब मिलकर ऐसा करें।
आईआईएससी प्रयोगशाला में विकसित पॉलीयूरेथिन का इस्तेमाल करके बनाए गए सामान ले जाने वाले थैले,तथा गिलास।